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मुझे तलाश करो - अहमद नदीम क़ासमी कविता - Darsaal

मुझे तलाश करो

शजर से टूट के जब मैं गिरा कहाँ पे गिरा

मुझे तलाश करो

जिन आँधियों ने मिरी सर-ज़मीं उधेड़ी थी

वो आज मौलिद-ए-ईसा में गर्द उड़ाती हैं

जो हो सके तो उन्ही से मिरा पता पूछो

मुझे तलाश करो

चली जो मश्रिक-ओ-मग़रिब से तुंद-ओ-तेज़ हवा

मिरे शजर ने मुझे प्यार से समेट लिया

मुझे लपेट लिया अपनी कितनी बाहोँ में

ये बे-लिहाज़ अनासिर मगर ब-ज़िद ही रहे

मैं बर्ग-ए-सब्ज़ गिरा बर्ग-ए-ज़र्द की मानिंद

उसी सुलगती हुई राख सी पतावर में

जो बिछ रही है उफ़ुक़ से उफ़ुक़ के पार तलक

मुझे तलाश करो

शजर से कट के ज़बाँ कट गई न हो मेरी

मैं चीख़ता हूँ मगर हर्फ़-ए-ना-शुनीदा हूँ

हयात-ए-ताज़ा है मेरी शजर से मेरा मिलाप

कि बस वही मिरी बालीदगी का मम्बा' है

जो रेगज़ार में छितनार देखने हैं तुम्हें

मुझे तलाश करो

फ़लक के राज़ तो खुलते रहेंगे हम-नफ़सो

मिरे वजूद का भी अब तो राज़ फ़ाश करो

मुझे तलाश करो

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