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रूह लबों तक आ कर सोचे - अहमद नदीम क़ासमी कविता - Darsaal

रूह लबों तक आ कर सोचे

रूह लबों तक आ कर सोचे कैसे छोड़ूँ क़र्या-ए-जाँ

यूसुफ़ क़स्र-ए-शही में भी कब भूला कनआँ की गलियाँ

मौत क़रीब आई तो दुनिया कितनी मुक़द्दस लगती है

काहिश-ए-दिल भी ख़्वाहिश-ए-दिल है आफ़त-ए-जाँ भी राहत-ए-जाँ

मेरी वहशत को तो बहुत थी गोशा-ए-चशम-ए-यार की सैर

यूँ तो अदम में वुसअत होगी अर्श-ब-अर्श कराँ-ब-कराँ

ग़ुंचे अब तक रंग भरे हैं अब तक होंट उमंग-भरे

टूटी-फूटी क़ब्रों से हैं पथराई आँखें निगराँ

सिर्फ़ इक निगह-ए-गर्म से टूटें शोलों में परवान चढ़ें

हाए ये नाज़ुक नाज़ुक रिश्ते हाए ये बज़्म-ए-शीशा-गराँ

दश्त-ओ-दमन में कोह कमर में बिखरे हुए हैं फूल ही फूल

रु-ए-निगार-ए-गीती पर हैं सब्त मिरे बोसों के निशाँ

आँख की इक झपकी में बीता कितने बरस का क़ुर्ब-ए-जमाल

इश्क़ के इक पल में गुज़रे हैं कितने क़रन कितनी सदियाँ

सारी दुनिया मेरा काबा सब इंसाँ मेरे महबूब

दुश्मन भी दो एक थे लेकिन दुश्मन भी तो थे इंसाँ

दर्द-ए-हयात कहीं अब जा कर बनने लगा था हुस्न-ए-हयात

किस को ख़बर थी महव रहेगी क़त-ए-सफ़र में उम्र-ए-रवाँ

जन्नत की यख़-बस्तगियों को गर्माएगा उस का ख़याल

सुब्ह-ए-अबद तक जमी रहे ये अंजुमन-ए-आतिश-ए-नफ़साँ

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