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क़यामत - अहमद नदीम क़ासमी कविता - Darsaal

क़यामत

चलो इक रात तो गुज़री

चलो सफ़्फ़ाक ज़ुल्मत के बदन का एक टुकड़ा तो कटा

और वक़्त की बे-इंतिहाई के समुंदर में

कोई ताबूत गिरने की सदा आई

ये माना रात आँखों में कटी

एक एक पल बुत सा बन कर जम गया

इक साँस तो इक सदी के बाद फिर से साँस लेने का ख़याल आया

ये सब सच है कि रात इक कर्ब-ए-बे-पायाँ थी

लेकिन कर्ब ही तख़्लीक़ है

ऐ पौ फटे के दिलरुबा लम्हो गवाही दो

यूँही कटती चली जाएँगी रातें

और फिर वो आफ़्ताब उभरेगा

जो अपनी शुआओं से अबद को रौशनी बख़्शेगा

फिर कोई अँधेरी धरती को न छू पाएगा

दानायान-ए-मज़हब के मुताबिक़ हश्र आ जाएगा

लेकिन हश्र भी इक कर्ब है

हर कर्ब इक तख़्लीक़ है

ऐ पौ फटे के दिलरुबा लम्हो गवाही दो

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