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दरांती - अहमद नदीम क़ासमी कविता - Darsaal

दरांती

चमक रहे हैं दरांती के तेज़ दंदाने

ख़मीदा हल की ये अल्हड़ जवान नूर-ए-नज़र

सुनहरी फ़स्ल में जिस वक़्त ग़ोता-ज़न होगी

तो एक गीत छिड़ेगा मुसलसल और दराज़

'नदीम' अज़ल से है तख़्लीक़ का यही अंदाज़

सितारे बोए गए आफ़्ताब काटे गए

हम आफ़्ताब ज़मीर-ए-जहाँ में बोएँ गे

तो एक रोज़ अज़ीम इंक़लाब काटेंगे

कोई बताए ज़मीं के इजारा-दारों को

बुला रहे हैं जो गुज़री हुई बहारों को

कि आज भी तो उसी शान-ए-बे-नियाज़ी से

चमक रहे हैं दरांती के तेज़ दंदाने

सुनहरी फ़स्ल तक उस की चमक नहीं मौक़ूफ़

कि अब निज़ाम-ए-कोहन भी उसी की ज़द में है

ख़मीदा हल की ये अल्हड़ जवान नूर-ए-नज़र

जब इस निज़ाम में लहरा के ग़ोता-ज़न होगी

तो एक गीत छिड़ेगा मुसलसल और दराज़

'नदीम' अज़ल से है तख़्लीक़ का यही अंदाज़

सितारे बोए गए आफ़्ताब काटे गए

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