अज़ली मसर्रतों की अज़ली मंज़िल
मटियाले मटियाले बादल घूम रहे हैं मैदानों के फैलाव पर
दरिया की दीवानी मौजें हुमक हुमक कर हंस देती हैं इक नाव पर
सामने ऊदे से पर्बत की अब्र-आलूदा चोटी पर है एक शिवाला
जिस के अक्स की ताबानी से फैल रहा है चारों जानिब एक उजाला
झिलमिल करती एक मशअल से मेहराबों के गहरे साए रक़्सीदा हैं
हर सू परियाँ नाच रही हैं जिन के आरिज़ रख़्शाँ नज़रें दुज़दीदा हैं
अम्बर और लोबान की लहरें दोशीज़ा की ज़ुल्फ़ों पे ऐसे बल खाती हैं
चाँदी के नाक़ूस की तानें धुँदले धुँदले नज़्ज़ारों में घुल जाती हैं
हाथ बढ़ाए सर निहूड़ाए पतले सायों का इक झुरमुट घूम रहा है
पूजा की लज़्ज़त में खो कर मंदिर के ताबिंदा ज़ीने चूम रहा है
एक बहुत पतली पगडंडी साहिल-ए-दरिया से मंदिर तक काँप रही है
नाव चलाने वाली लड़की चप्पू को माथे से लगाए हाँप रही है
दीवानी को कौन बताए उस मंदिर की धुन में सब थक-हार गए हैं
साए बन के घूम रहे हैं जो बे-बाक चलाने वाले पार गए हैं
वो जब नाव से उतरेगी मटियाले मटियाले बादल घिर आएँगे
मैदानों पर कोहसारों पर दरिया पर नाव पर सब पर छा जाएँगे
अव्वल तो पगडंडी खो कर गिर जाएगी ग़ारों ग़ारों में बेचारी
बच निकली तो हो जाएगी उस के नाज़ुक दिल पर इक हैबत सी तारी
होश में आई तो रग रग पर एक नशा सा बे-होशी का छाया होगा
जिस्म के बदले उस मंदिर में धुँदला इक लचकीला साया होगा
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