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यूँ तो पहने हुए पैराहन-ए-ख़ार आता हूँ - अहमद नदीम क़ासमी कविता - Darsaal

यूँ तो पहने हुए पैराहन-ए-ख़ार आता हूँ

यूँ तो पहने हुए पैराहन-ए-ख़ार आता हूँ

ये भी देखो कि ब-सौदा-ए-बहार आता हूँ

अर्श से जब नहीं उठती मिरी फ़रियाद की गूँज

मैं तुझे दिल के ख़राबे में पुकार आता हूँ

मुझे आता ही नहीं बस में किसी के आना

आऊँ भी तो ब-कफ़-ए-आबला-दार आता हूँ

तू यहाँ ज़ेर-ए-उफ़ुक़ चंद घड़ी सुस्ता ले

मैं ज़रा दिन से निमट कर शब-ए-तार! आता हूँ

तुझ से छुट कर भी तिरी सुर्ख़ी-ए-आरिज़ की क़सम

चुपके चुपके तिरे दिल में कई बार आता हूँ

ये अलग बात कि फूलों पे हो ज़ख़्मों का गुमाँ

मैं तो जब आता हूँ हमरंग-ए-बहार आता हूँ

दश्त-ए-हर-फ़िक्र से मैं अस्र-ए-रवाँ का इंसाँ

हो के ख़ुद अपनी ज़ेहानत का शिकार आता हूँ

इन्ही दो बातों में कट जाती है सब उम्र 'नदीम'

ऐ ग़म-ए-दहर न छेड़ ऐ ग़म-ए-यार आता हूँ

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