शुऊर में कभी एहसास में बसाऊँ उसे
शुऊर में कभी एहसास में बसाऊँ उसे
मगर मैं चार तरफ़ बे-हिजाब पाऊँ उसे
अगरचे फ़र्त-ए-हया से नज़र न आऊँ उसे
वो रूठ जाए तो सौ तरह से मनाऊँ उसे
तवील हिज्र का ये जब्र है कि सोचता हूँ
जो दिल में बस्ता है अब हाथ भी लगाऊँ उसे
उसे बुला के मिला उम्र भर का सन्नाटा
मगर ये शौक़ कि इक बार फिर बुलाऊँ उसे
अँधेरी रात में जब रास्ता नहीं मिलता
मैं सोचता हूँ कहाँ जा के ढूँड लाऊँ उसे
अभी तक उस का तसव्वुर तो मेरे बस में है
वो दोस्त है तो ख़ुदा किस लिए बनाऊँ उसे
'नदीम' तर्क-ए-मोहब्बत को एक उम्र हुई
मैं अब भी सोच रहा हूँ कि भूल जाऊँ उसे
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