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क़लम दिल में डुबोया जा रहा है - अहमद नदीम क़ासमी कविता - Darsaal

क़लम दिल में डुबोया जा रहा है

क़लम दिल में डुबोया जा रहा है

नया मंशूर लिक्खा जा रहा है

मैं कश्ती में अकेला तो नहीं हूँ

मिरे हमराह दरिया जा रहा है

सलामी को झुके जाते हैं अश्जार

हवा का एक झोंका जा रहा है

मुसाफ़िर ही मुसाफ़िर हर तरफ़ हैं

मगर हर शख़्स तन्हा जा रहा है

मैं इक इंसाँ हूँ या सारा जहाँ हूँ

बगूला है कि सहरा जा रहा है

'नदीम' अब आमद आमद है सहर की

सितारों को बुझाया जा रहा है

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