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मैं वो शाएर हूँ जो शाहों का सना-ख़्वाँ न हुआ - अहमद नदीम क़ासमी कविता - Darsaal

मैं वो शाएर हूँ जो शाहों का सना-ख़्वाँ न हुआ

मैं वो शाएर हूँ जो शाहों का सना-ख़्वाँ न हुआ

ये है वो जुर्म जो मुझ से किसी उनवाँ न हुआ

इस गुनह पर मिरी इक उम्र अँधेरे में कटी

मुझ से इस मौत के मेले में चराग़ाँ न हुआ

कल जहाँ फूल खिले जश्न है ज़ख़्मों का वहाँ

दिल वो गुलशन है उजड़ कर भी जो वीराँ न हुआ

आँखें कुछ और दिखाती हैं मगर ज़ेहन कुछ और

बाग़ महके मगर एहसास-ए-बहाराँ न हुआ

यूँ तो हर दौर में गिरते रहे इंसान के निर्ख़

इन ग़ुलामों में कोई यूसुफ़-ए-कनआँ न हुआ

मैं ख़ुद आसूदा हूँ कम-कोश हूँ या पथर हूँ

ज़ख़्म खा के भी मुझे दर्द का इरफ़ाँ न हुआ

सारी दुनिया मुतलातिम नज़र आती है 'नदीम'

मुझ पे इक तंज़ हुआ रौज़न-ए-ज़िंदाँ न हुआ

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