मैं वो शाएर हूँ जो शाहों का सना-ख़्वाँ न हुआ
मैं वो शाएर हूँ जो शाहों का सना-ख़्वाँ न हुआ
ये है वो जुर्म जो मुझ से किसी उनवाँ न हुआ
इस गुनह पर मिरी इक उम्र अँधेरे में कटी
मुझ से इस मौत के मेले में चराग़ाँ न हुआ
कल जहाँ फूल खिले जश्न है ज़ख़्मों का वहाँ
दिल वो गुलशन है उजड़ कर भी जो वीराँ न हुआ
आँखें कुछ और दिखाती हैं मगर ज़ेहन कुछ और
बाग़ महके मगर एहसास-ए-बहाराँ न हुआ
यूँ तो हर दौर में गिरते रहे इंसान के निर्ख़
इन ग़ुलामों में कोई यूसुफ़-ए-कनआँ न हुआ
मैं ख़ुद आसूदा हूँ कम-कोश हूँ या पथर हूँ
ज़ख़्म खा के भी मुझे दर्द का इरफ़ाँ न हुआ
सारी दुनिया मुतलातिम नज़र आती है 'नदीम'
मुझ पे इक तंज़ हुआ रौज़न-ए-ज़िंदाँ न हुआ
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