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जब भी आँखों में तिरी रुख़्सत का मंज़र आ गया - अहमद नदीम क़ासमी कविता - Darsaal

जब भी आँखों में तिरी रुख़्सत का मंज़र आ गया

जब भी आँखों में तिरी रुख़्सत का मंज़र आ गया

आफ़्ताब-ए-वक़्त नेज़े के बराबर आ गया

दोस्ती की जब दुहाई दी तो शर्क़-ओ-ग़र्ब से

हाथ में पत्थर लिए यारों का लश्कर आ गया

इस सफ़र में गो तमाज़त तो बहुत थी हिज्र की

मैं तिरी यादों की छाँव सर पे ले कर आ गया

गो ज़मीन-ओ-आसमाँ मसरूफ़-ए-गर्दिश हैं मगर

जब भी गर्दिश का सबब सोचा तो चक्कर आ गया

आदमी को हश्र के मंज़र नज़र आने लगे

उस के क़ब्ज़े में जब इक ज़र्रे का जौहर आ गया

हुस्न-ए-इंसाँ दफ़्न हो जाने से मिटता है कहाँ

फूल बन कर ख़ाक के पर्दे से बाहर आ गया

अश्क जब टपके किसी बेकस की आँखों से 'नदीम'

यूँ लगा तूफ़ान की ज़द में समुंदर आ गया

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