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दिलों से आरज़ू-ए-उम्र-ए-जावेदाँ न गई - अहमद नदीम क़ासमी कविता - Darsaal

दिलों से आरज़ू-ए-उम्र-ए-जावेदाँ न गई

दिलों से आरज़ू-ए-उम्र-ए-जावेदाँ न गई

कोई निगाह पस-ए-गर्द-ए-कारवाँ न गई

वो और चीज़ है होते हैं जिस से दिल शादाब

तिरी बहार से वीरानी-ए-ख़िज़ाँ न गई

निकल के ख़ुल्द से भी आदमी न पछताया

ज़मीं पे भी चमन-आराई-ए-गुमाँ न गई

बस एक कुंज-ए-क़फ़स तक न आ सकी वर्ना

सबा चली तो चमन में कहाँ कहाँ न गई

कहाँ कहाँ न हुईं सब्त हुस्न की मोहरें

कली हवा में बिखर कर भी राएगाँ न गई

मिरी दुआ की ये ग़ैरत है कितनी क़ाबिल-ए-दाद

कि लब तक आई मगर सू-ए-आसमाँ न गई

दयार-ए-इश्क़ खंडर और दश्त-ए-दिल सुनसान

मगर 'नदीम' की रंगीनी-ए-बयाँ न गई

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