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दावा तो किया हुस्न-ए-जहाँ-सोज़ का सब ने - अहमद नदीम क़ासमी कविता - Darsaal

दावा तो किया हुस्न-ए-जहाँ-सोज़ का सब ने

दावा तो किया हुस्न-ए-जहाँ-सोज़ का सब ने

दुनिया का मगर रूप बढ़ाया तिरी छब ने

तू नींद में भी मेरी तरफ़ देख रहा था

सोने न दिया मुझ को सियह-चश्मी-ए-शब ने

हर ज़ख़्म पे देखी हैं तिरे प्यार की मोहरें

ये गुल भी खिलाए हैं तेरी सुर्ख़ी-ए-लब ने

ख़ुशबू-ए-बदन आई है फिर मौज-ए-सबा से

फिर किस को पुकारा है तिरे शहर तरब ने

दरकार है मुझ को तो फ़क़त इज़्न-ए-तबस्सुम

पत्थर से अगर फूल उगाए मिरे रब ने

वो हुस्न है इंसान की मेराज-ए-तसव्वुर

जिस हुस्न को पूजा है मिरे शेर ओ अदब ने

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