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बारिश की रुत थी रात थी पहलू-ए-यार था - अहमद नदीम क़ासमी कविता - Darsaal

बारिश की रुत थी रात थी पहलू-ए-यार था

बारिश की रुत थी रात थी पहलू-ए-यार था

ये भी तिलिस्म-ए-गर्दिश-ए-लैल-ओ-नहार था

कहते हैं लोग औज पे था मौसम-ए-बहार

दिल कह रहा है अरबदा-ए-ज़ुल्फ़-ए-यार था

अब तो विसाल-ए-यार से बेहतर है याद-ए-यार

मैं भी कभी फ़रेब-ए-नज़र का शिकार था

तू मेरी ज़िंदगी से भी कतरा के चल दिया

तुझ को तो मेरी मौत पे भी इख़्तियार था

ओ गाने वाले टूटते तारों के साज़ पर

मैं भी शहीद-ए-तूल-ए-शब-ए-इंतिज़ार था

पलकें उठीं झपक के गिरीं फिर न उठ सकीं

ये ए'तिबार है तो कहाँ ए'तिबार था

यज़्दाँ से भी उलझ ही पड़ा था तिरा 'नदीम'

या'नी अज़ल से दिल में यही ख़लफ़शार था

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