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उजला तिरा बर्तन है और साफ़ तिरा पानी - अहमद मुश्ताक़ कविता - Darsaal

उजला तिरा बर्तन है और साफ़ तिरा पानी

उजला तिरा बर्तन है और साफ़ तिरा पानी

इक उम्र का प्यासा हूँ मुझ को भी पिला पानी

है इक ख़त-ए-नादीदा दरिया-ए-मोहब्बत में

होता है जहाँ आ कर पानी से जुदा पानी

दोनों ही तो सच्चे थे इल्ज़ाम किसे देते

कानों ने कहा सहरा आँखों ने सुना पानी

क्या क्या न मिली मिट्टी क्या क्या न धुआँ फैला

काला न हुआ सब्ज़ा मैला न हुआ पानी

जब शाम उतरती है क्या दिल पे गुज़रती है

साहिल ने बहुत पूछा ख़ामोश रहा पानी

फिर देख कि ये दुनिया कैसी नज़र आती है

'मुश्ताक़' मय-ए-ग़म में थोड़ा सा मिला पानी

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