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मुसलसल याद आती है चमक चश्म-ए-ग़ज़ालाँ की - अहमद मुश्ताक़ कविता - Darsaal

मुसलसल याद आती है चमक चश्म-ए-ग़ज़ालाँ की

मुसलसल याद आती है चमक चश्म-ए-ग़ज़ालाँ की

अकेली ज़ात है और रात है जंगल बयाबाँ की

ज़रा देखो हवा-ए-सुब्ह कैसे खींच लाई है

अकेली पंखुड़ी में दिलकशी सारे गुलिस्ताँ की

इन्हीं गलियों में खुलते थे मुलाक़ातों के दरवाज़े

इन्हीं गलियों में चलती हैं हवाएँ शाम-ए-हिज्राँ की

कोई ज़र्रे को ज़र्रा ही समझ कर छोड़ देता है

किसी को सूझती है इस से ता'मीर-ए-बयाबाँ की

ये वो मौसम है जिस में कोई पत्ता भी नहीं हिलता

दिल-ए-तन्हा उठाता है सऊबत शाम-ए-हिज्राँ की

यही काफ़ी है दिल से मुद्दतों का बोझ तो उतरा

चलो इस चश्म-ए-गिर्यां ने कोई मुश्किल तो आसाँ की

सितारे दर्द की आवाज़ से ग़ाफ़िल नहीं रहते

दम-ए-आहू से रौशन मिशअलें रेग-ए-बयाबाँ की

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