किस रक़्स-ए-जान-आे-तन में मिरा दिल नहीं रहा
किस रक़्स-ए-जान-आे-तन में मिरा दिल नहीं रहा
गो मैं किसी जुलूस में शामिल नहीं रहा
हर चंद तेरी रूह का महरम रहा हूँ मैं
लेकिन तिरे बदन से भी ग़ाफ़िल नहीं रहा
तुझ से कोई गिला है न तेरी वफ़ा से है
मैं ही तिरे ख़याल के क़ाबिल नहीं रहा
बाहर चहक रही हो कि अंदर महक रही
दिल अब किसी बहार का क़ाइल नहीं रहा
यारो सफ़ीना-ए-ग़म-ए-दिल का बनेगा क्या
लगता है अब कहीं कोई साहिल नहीं रहा
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