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इक उम्र की और ज़रूरत है वही शाम-ओ-सहर करने के लिए - अहमद मुश्ताक़ कविता - Darsaal

इक उम्र की और ज़रूरत है वही शाम-ओ-सहर करने के लिए

इक उम्र की और ज़रूरत है वही शाम-ओ-सहर करने के लिए

वो बात जो तुम से कह न सके उसे बार-ए-दिगर करने के लिए

कभी ज़िक्र किया तिरी ज़ुल्फ़ों का और जाती शाम को रोक लिया

कभी याद किया तिरे चेहरे को आग़ाज़-ए-सहर करने के लिए

फ़ुटपाथ पे भी सोने न दिया तिरे शहर के इज़्ज़त-दारों ने

हम कितनी दूर से आए थे इक रात बसर करने के लिए

उस आँख ने जिस की क़िस्मत में सच-मुच के दर-ओ-दीवार न थे

ख़्वाबों के नगर आबाद किए हसरत की नज़र करने के लिए

इस बेहिस दुनिया के आगे किसी लहर की पेश नहीं जाती

अब बहर का बहर उछाल कोई इसे ज़ेर-ओ-ज़बर करने के लिए

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