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सर-ब-सर पैकर-ए-इज़हार में लाता है मुझे - अहमद महफ़ूज़ कविता - Darsaal

सर-ब-सर पैकर-ए-इज़हार में लाता है मुझे

सर-ब-सर पैकर-ए-इज़हार में लाता है मुझे

और फिर ख़ुद ही तह-ए-ख़ाक छुपाता है मुझे

कब से सुनता हूँ वही एक सदा-ए-ख़ामोश

कोई तो है जो बुलंदी से बुलाता है मुझे

रात आँखों में मिरी गर्द-ए-सियह डाल के वो

फ़र्श-ए-बे-ख़्वाबी-ए-वहशत पे सुलाता है मुझे

गुम-शुदा मैं हूँ तो हर सम्त भी गुम है मुझ में

देखता हूँ वो किधर ढूँडने जाता है मुझे

दीदनी है ये तवज्जोह भी ब-अंदाज़-ए-सितम

उम्र भर शीशा-ए-ख़ाली से पिलाता है मुझे

हमा-अंदेशा-ए-गिर्दाब ब-पहलू-ए-नशात

मौज-दर-मौज ही साहिल नज़र आता है मुझे

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