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बदन-सराब न दरिया-ए-जाँ से मिलता है - अहमद महफ़ूज़ कविता - Darsaal

बदन-सराब न दरिया-ए-जाँ से मिलता है

बदन-सराब न दरिया-ए-जाँ से मिलता है

तो फिर ये ख़्वाब-किनारा कहाँ से मिलता है

ये धूप छाँव सलामत रहे कि तेरा सुराग़

हमें तो साया-ए-अब्र-ए-रवाँ से मिलता है

हम अहल-ए-दर्द जहाँ भी हैं सिलसिला सब का

तुम्हारे शहर के आशुफ़्तगाँ से मिलता है

जहाँ से कुछ न मिले तो भी फ़ाएदे हैं बहुत

हमें ये नक़्द उसी आस्ताँ से मिलता है

फ़ज़ा ही सारी हुई सुर्ख़-रू तो हैरत क्या

कि आज रंग-ए-हवा गुल-रुख़ाँ से मिलता है

बिछड़ के ख़ाक हुए हम तो क्या ज़रा देखो

ग़ुबार जा के उसी कारवाँ से मिलता है

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