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मिरे अंदर रवानी ख़त्म होती जा रही है - अहमद ख़याल कविता - Darsaal

मिरे अंदर रवानी ख़त्म होती जा रही है

मिरे अंदर रवानी ख़त्म होती जा रही है

सो लगता है कहानी ख़त्म होती जा रही है

उसे छू कर लबों से फूल झड़ने लग गए हैं

मिरी आतिश-फ़िशानी ख़त्म होती जा रही है

सुलगते दश्त में अब धूप सहना पड़ गई है

तुम्हारी साएबानी ख़त्म होती जा रही है

हमारा दिल ज़माने से उलझने लग गया है

तुम्हारी हुक्मरानी ख़त्म होती जा रही है

समुंदर से सिमट कर झील बनते जा रहे हैं

हमारी बे-करानी ख़त्म होती जा रही है

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