मिरी वफ़ा है मिरे मुँह पे हाथ रक्खे हुए
तू सोचता है कि कुछ भी नहीं समझता मैं
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पाँव बाँधे हैं वफ़ा से जब ने
मिट्टी से बग़ावत न बग़ावत से गुरेज़ाँ
इक पल का तवक़्क़ुफ़ भी गिराँ-बार है तुझ पर
चंद पेड़ों को ही मजनूँ की दुआ होती है
कोई मंसब कोई दस्तार नहीं चाहिए है
रास आएगी मोहब्बत उस को
तू ज़ियादा में से बाहर नहीं आया करता
कुर्रा-ए-हिज्र से होना है नुमूदार मुझे
ज़िंदा रहने का तक़ाज़ा नहीं छोड़ा जाता
तुम्हारे हिज्र को काफ़ी नहीं समझता मैं
चाहिए है मुझे इंकार-ए-मोहब्बत मिरे दोस्त
ख़्वाब यूँ ही नहीं होते पूरे