इक पल का तवक़्क़ुफ़ भी गिराँ-बार है तुझ पर
और हम कि थके-हारे मसाफ़त से गुरेज़ाँ
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तुम्हारे हिज्र को काफ़ी नहीं समझता मैं
चंद पेड़ों को ही मजनूँ की दुआ होती है
तू ने ऐ इश्क़ ये सोचा कि तिरा क्या होगा
कोई मंसब कोई दस्तार नहीं चाहिए है
मुझ पे तस्वीर लगा दी गई है
ज़िंदा रहने का तक़ाज़ा नहीं छोड़ा जाता
ख़्वाब यूँ ही नहीं होते पूरे
मिरी वफ़ा है मिरे मुँह पे हाथ रक्खे हुए
मिट्टी से बग़ावत न बग़ावत से गुरेज़ाँ
ये जो बेदार दिखाई दिया हूँ
पाँव बाँधे हैं वफ़ा से जब ने