तुम्हारे हिज्र को काफ़ी नहीं समझता मैं
तुम्हारे हिज्र को काफ़ी नहीं समझता मैं
किसी मलाल को हतमी नहीं समझता मैं
ये और बात कि आरी है दिल मोहब्बत से
ये दुख सिवा है कि आरी नहीं समझता मैं
चला है रात के हम-राह छोड़ कर मुझ को
चराग़ उस को तो यारी नहीं समझता मैं
मैं इंहिमाक से इक इंतिज़ार जी रहा हूँ
मगर ये काम ज़रूरी नहीं समझता मैं
मिरी वफ़ा है मिरे मुँह पे हाथ रक्खे हुए
तू सोचता है कि कुछ भी नहीं समझता मैं
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