तुझ से बिछड़ूँ तो तिरी ज़ात का हिस्सा हो जाऊँ
जिस से मरता हूँ उसी ज़हर से अच्छा हो जाऊँ
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शाम के ब'अद सितारों को सँभलने न दिया
रौशनी साँस ही ले ले तो ठहर जाता हूँ
अमल बर-वक़्त होना चाहिए था
रफ़ाक़तों का तवाज़ुन अगर बिगड़ जाए
बराए-ज़ेब उस को गौहर-ओ-अख़्तर नहीं लगता
ज़रा ज़रा सी कई कश्तियाँ बना लेना
मैं रंग-ए-आसमाँ कर के सुनहरी छोड़ देता हूँ
फूल पर ओस का क़तरा भी ग़लत लगता है
अगर कट-फट गया था मेरा दामन
मिरी आदत मुझे पागल नहीं होने देती
जो खो गया है कहीं ज़िंदगी के मेले में
ये लग रहा है रग-ए-जाँ पे ला के छोड़ी है