तन्हाई से बचाव की सूरत नहीं करूँ
मर जाऊँ क्या किसी से मोहब्बत नहीं करूँ
Allama Iqbal
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मुझ को मालूम है महबूब-परस्ती का अज़ाब
मिरी आदत मुझे पागल नहीं होने देती
मैं रंग-ए-आसमाँ कर के सुनहरी छोड़ देता हूँ
तुझ से बिछड़ूँ तो तिरी ज़ात का हिस्सा हो जाऊँ
न जाने क्या ख़राबी आ गई है मेरे लहजे में
रौशनी साँस ही ले ले तो ठहर जाता हूँ
ये गर्म रेत ये सहरा निभा के चलना है
जो खो गया है कहीं ज़िंदगी के मेले में
रफ़ाक़तों का तवाज़ुन अगर बिगड़ जाए