मुझ को मालूम है महबूब-परस्ती का अज़ाब
देर से चाँद निकलना भी ग़लत लगता है
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कँवारे आँसुओं से रात घाएल होती रहती है
तुझ से बिछड़ूँ तो तिरी ज़ात का हिस्सा हो जाऊँ
ज़रा ज़रा सी कई कश्तियाँ बना लेना
एक ही तीर है तरकश में तो उजलत न करो
अमल बर-वक़्त होना चाहिए था
मिरी आदत मुझे पागल नहीं होने देती
तुम मेरे साथ हो ये सच तो नहीं है लेकिन
तुम पे सूरज की किरन आए तो शक करता हूँ
ये गर्म रेत ये सहरा निभा के चलना है
वो अपने हुस्न की ख़ैरात देने वाले हैं