मिरी आदत मुझे पागल नहीं होने देती
लोग तो अब भी समझते हैं कि घर जाता हूँ
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शाम के ब'अद सितारों को सँभलने न दिया
इस क़दर आप के बदले हुए तेवर हैं कि मैं
तुझ से बिछड़ूँ तो तिरी ज़ात का हिस्सा हो जाऊँ
अगर कट-फट गया था मेरा दामन
बराए-ज़ेब उस को गौहर-ओ-अख़्तर नहीं लगता
एक ही तीर है तरकश में तो उजलत न करो
मैं क़सीदा तिरा लिक्खूँ तो कोई बात नहीं
आग तो चारों ही जानिब थी पर अच्छा ये है
अमल बर-वक़्त होना चाहिए था
ये लग रहा है रग-ए-जाँ पे ला के छोड़ी है