मैं ने इस शहर में वो ठोकरें खाई हैं कि अब
आँख भी मूँद के गुज़रूँ तो गुज़र जाता हूँ
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वो अपने हुस्न की ख़ैरात देने वाले हैं
अमल बर-वक़्त होना चाहिए था
तुझ से बिछड़ूँ तो तिरी ज़ात का हिस्सा हो जाऊँ
ये गर्म रेत ये सहरा निभा के चलना है
कँवारे आँसुओं से रात घाएल होती रहती है
ज़रा ज़रा सी कई कश्तियाँ बना लेना
रफ़ाक़तों का तवाज़ुन अगर बिगड़ जाए
फूल पर ओस का क़तरा भी ग़लत लगता है
मैं रंग-ए-आसमाँ कर के सुनहरी छोड़ देता हूँ
मैं इस लिए भी तिरे फ़न की क़द्र करता हूँ
जो खो गया है कहीं ज़िंदगी के मेले में
तुम्हारे वस्ल का जिस दिन कोई इम्कान होता है