ख़ुदाया यूँ भी हो कि उस के हाथों क़त्ल हो जाऊँ
वही इक ऐसा क़ातिल है जो पेशा-वर नहीं लगता
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फूल पर ओस का क़तरा भी ग़लत लगता है
आग तो चारों ही जानिब थी पर अच्छा ये है
मैं क़सीदा तिरा लिक्खूँ तो कोई बात नहीं
मुझ को मालूम है महबूब-परस्ती का अज़ाब
तुम पे सूरज की किरन आए तो शक करता हूँ
बराए-ज़ेब उस को गौहर-ओ-अख़्तर नहीं लगता
मिरी आदत मुझे पागल नहीं होने देती
वो अपने हुस्न की ख़ैरात देने वाले हैं
मैं ने इस शहर में वो ठोकरें खाई हैं कि अब
एक ही तीर है तरकश में तो उजलत न करो
ज़रा ज़रा सी कई कश्तियाँ बना लेना
वो अब तिजारती पहलू निकाल लेता है