एक ही तीर है तरकश में तो उजलत न करो
ऐसे मौक़े पे निशाना भी ग़लत लगता है
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तुझ से बिछड़ूँ तो तिरी ज़ात का हिस्सा हो जाऊँ
तन्हाई से बचाव की सूरत नहीं करूँ
ये गर्म रेत ये सहरा निभा के चलना है
फूल पर ओस का क़तरा भी ग़लत लगता है
इस क़दर आप के बदले हुए तेवर हैं कि मैं
तुम पे सूरज की किरन आए तो शक करता हूँ
रौशनी साँस ही ले ले तो ठहर जाता हूँ
मैं रंग-ए-आसमाँ कर के सुनहरी छोड़ देता हूँ
तमाम भीड़ से आगे निकल के देखते हैं
अमल बर-वक़्त होना चाहिए था
जो खो गया है कहीं ज़िंदगी के मेले में