अहमद कमाल परवाज़ी कविता, ग़ज़ल तथा कविताओं का अहमद कमाल परवाज़ी
नाम | अहमद कमाल परवाज़ी |
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अंग्रेज़ी नाम | Ahmad Kamal Parwazi |
वो अपने हुस्न की ख़ैरात देने वाले हैं
तुम्हारे वस्ल का जिस दिन कोई इम्कान होता है
तुम मेरे साथ हो ये सच तो नहीं है लेकिन
तुझ से बिछड़ूँ तो तिरी ज़ात का हिस्सा हो जाऊँ
तुझ से बिछड़ूँ तो तिरी ज़ात का हिस्सा हो जाऊँ
तन्हाई से बचाव की सूरत नहीं करूँ
रफ़ाक़तों का तवाज़ुन अगर बिगड़ जाए
न जाने क्या ख़राबी आ गई है मेरे लहजे में
मुझ को मालूम है महबूब-परस्ती का अज़ाब
मिरी आदत मुझे पागल नहीं होने देती
मैं ने इस शहर में वो ठोकरें खाई हैं कि अब
मैं क़सीदा तिरा लिक्खूँ तो कोई बात नहीं
मैं इस लिए भी तिरे फ़न की क़द्र करता हूँ
ख़ुदाया यूँ भी हो कि उस के हाथों क़त्ल हो जाऊँ
जो खो गया है कहीं ज़िंदगी के मेले में
इस क़दर आप के बदले हुए तेवर हैं कि मैं
एक ही तीर है तरकश में तो उजलत न करो
अगर कट-फट गया था मेरा दामन
आग तो चारों ही जानिब थी पर अच्छा ये है
ज़रा ज़रा सी कई कश्तियाँ बना लेना
ये लग रहा है रग-ए-जाँ पे ला के छोड़ी है
ये गर्म रेत ये सहरा निभा के चलना है
वो अब तिजारती पहलू निकाल लेता है
तुम पे सूरज की किरन आए तो शक करता हूँ
तुझ से बिछड़ूँ तो तिरी ज़ात का हिस्सा हो जाऊँ
तन्हाई से बचाव की सूरत नहीं करूँ
तमाम भीड़ से आगे निकल के देखते हैं
शाम के ब'अद सितारों को सँभलने न दिया
रौशनी साँस ही ले ले तो ठहर जाता हूँ
फूल पर ओस का क़तरा भी ग़लत लगता है