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एक तअस्सुर - अहमद जावेद कविता - Darsaal

एक तअस्सुर

ख़ामोशी हमेशा से उतनी ही गहरी है

जितनी कि कैनवस से मावरा तस्वीर

तुम ऐसा नहीं समझते क्या?

आँखें जो हमें दी गई हैं

किसी अनाड़ी मुसव्विर कि घड़ी हुई आग के

शोला-ए-सियाह के बिल-मुक़ाबिल

काफ़ी हैं नज़र-अंदाज़ करने के लिए हर चीज़ को

जो ज़ाहिर है रंगीनी के साथ

ये आला दर्जे की संजीदगी है

एक मुकम्मल दिमाग़ कि फ़ौक़ुल-हाफ़िज़ा गहराई का मोती

सियाह रख़्शंदा और मुहीब!

तस्वीर-ए-ना-शुदा तिमसाल

कभी नहीं टिकती उस आईने की फिसलवां सतह पर

जो ख़ुद अक्स है किसी और आईने में

पूरी महारत से

इंतिहाई हिमाक़त से

नहीं, मैं नहीं देख सकता वो ग़ैर-मनक़ूता नुक़्ता

जो कश्फ़ से अरीज़ है और मुराक़बे से वसीअ!

अब लाज़िम है कि तस्वीर किए जाएँ

ख़ामोशी कि तह आग का बातिन और

मुक़द्दस तन्हाई!

तो कहाँ है तुम्हारा ब्रश?

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