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मौजूद हैं कितने ही तुझ से भी हसीं कर के - अहमद जावेद कविता - Darsaal

मौजूद हैं कितने ही तुझ से भी हसीं कर के

मौजूद हैं कितने ही तुझ से भी हसीं कर के

झुटला दिया आँखों को मैं दिल पे यक़ीं कर के

जिस चश्म से रिंदों में हू-हक़ है उसी ने तो

ज़ाहिद को भी रक्खा है मेहराब-नशीं कर के

क्या उस की लताफ़त का अहवाल बयाँ कीजिए

जो दिल पे हुआ ज़ाहिर आँखों को नहीं कर के

कुछ कम था बला-ए-जाँ पे चेहरा कि ऊपर से

आँखें भी बना लाए ग़ारत-गर-ए-दीं कर के

आईने के आगे से अब उठ भी चुको साहब

क्या कीजिएगा ख़ुद को इतना भी हसीं कर के

सौ दाग़ हैं सीने में वो दाग़-ए-जुदाई भी

देखो तो ज़रा होगा उन में ही कहीं कर के

इस दिल का तो नक़्शा ही दुनिया ने बदल डाला

कुछ याद है रहता था वो भी तो यहीं कर के

'जावेद' वहाँ तक तो मुश्किल है कोई पहुँचे

मँगवाइए क़ासिद भी जिब्रील-ए-अमीं कर के

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