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मगर वो दिया ही नहीं मान कर के - अहमद जावेद कविता - Darsaal

मगर वो दिया ही नहीं मान कर के

मगर वो दिया ही नहीं मान कर के

बहुत हम ने देखा है जी जान कर के

कभी दिल को भी सैर कर जाओ साहब

ये ग़ुंचा भी हैगा गुलिस्तान कर के

नज़र इस सरापे में सौ जा से पलटी

ज़ुलेख़ाई यूसुफ़िस्तान कर के

वो जिस रोज़ निकलें जग उजियारने को

ये दिल भी दिखा लाइयो ध्यान कर के

जनाब आप हूर ओ मलक होंगे लेकिन

समझिएगा आशिक़ को इंसान कर के

तिरी लाला-ज़ारी सलामत कि हम भी

खड़े हैं कोई ग़ुंचा अरमान कर के

मसीह ओ ख़िज़्र सर-ब-कफ़ फिर रहे हैं

कोई उस पे मरना है आसान कर के

मिरी किश्त-ए-जाँ पर से गुज़रा है 'जावेद'

सहाब-ए-जुनूँ ज़ोर-ए-बारान कर के

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