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किया है दिल ने बेगाना जहान-ए-मुर्ग़-ओ-माही से - अहमद जावेद कविता - Darsaal

किया है दिल ने बेगाना जहान-ए-मुर्ग़-ओ-माही से

किया है दिल ने बेगाना जहान-ए-मुर्ग़-ओ-माही से

हमें जागीर-ए-आज़ादी मिली दरबार-ए-शाही से

खिला है ग़ुंचा-ए-हैरत हवा-ए-गाह-गाही से

हुए मज्ज़ूब रफ़्ता रफ़्ता उस की कम-निगाही से

तिरी दुनिया में ऐ दिल हम भी इक गोशे में रहते हैं

हमें भी कुछ उम्मीदें हैं तिरी आलम-पनाही से

रेआया में शहंशाह-ए-जुनूँ की हम भी दाख़िल हैं

हमें भी कुछ न कुछ निस्बत तो है ज़िल्ल-ए-इलाही से

हुए हैं बस-कि बैअत उस नज़र के ख़ानवादे में

फ़क़ीरी से तअल्लुक़ है न मतलब बादशाही से

किया है उस नज़र ने सरफ़राज़ अहल-ए-मोहब्बत को

किसी को ताज-दारी से किसी को बे-कुलाही से

कहाँ वो ख़ानुमाँ-बर्बादी-ए-इश्क़ और कहाँ ये हम

फिरा करते हैं यूँही दर-ब-दर वाही तबाही से

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