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हमारी हम-नफ़सी को भी क्या दवाम हुआ - अहमद जावेद कविता - Darsaal

हमारी हम-नफ़सी को भी क्या दवाम हुआ

हमारी हम-नफ़सी को भी क्या दवाम हुआ

वो अब्र-ए-सुर्ख़ तो मैं नख़्ल-ए-इंतिक़ाम हुआ

यहीं से मेरे अदू का ख़मीर उट्ठा था

ज़मीन देख के मैं तेग़-ए-बे-नियाम हुआ

ख़बर नहीं है मिरे बादशाह को शायद

हज़ार मर्तबा आज़ाद ये ग़ुलाम हुआ

अजब सफ़र था अजब-तर मुसाफ़िरत मेरी

ज़मीं शुरू हुई और मैं तमाम हुआ

वो काहिली है कि दिल की तरफ़ से ग़ाफ़िल हैं

ख़ुद अपने घर का भी हम से न इंतिज़ाम हुआ

हुई है ख़त्म दर-ओ-बाम की कम-अस्बाबी

मयस्सर आज वो सामान-ए-इन्हिदाम हुआ

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