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दिल-ए-बेताब के हमराह सफ़र में रहना - अहमद जावेद कविता - Darsaal

दिल-ए-बेताब के हमराह सफ़र में रहना

दिल-ए-बेताब के हमराह सफ़र में रहना

हम ने देखा ही नहीं चैन से घर में रहना

स्वाँग भरना कभी शाही कभी दरवेशी का

किसी सूरत से मुझे उस की नज़र में रहना

एक हालत पे बसर हो नहीं सकती मेरी

जामा-ए-ख़ाक कभी ख़िलअत-ए-ज़र में रहना

दिन में है फ़िक्र-ए-पस-अंदाज़ी-ए-सरमाया-ए-शब

रात भर काविश-ए-सामान-ए-सहर में रहना

दिल से भागे तो लिया दीदा-ए-तर ने गोया

आग से बच के निकलना तो भँवर में रहना

अहल-ए-दुनिया बहुत आराम से रहते हैं मगर

कब मयस्सर है तिरी राहगुज़र में रहना

वस्ल की रात गई हिज्र का दिन भी गुज़रा

मुझे वारफ़्तगी-ए-हाल-ए-दिगर में रहना

कर चुका है कोई अफ़्लाक ओ ज़मीं की तकमील

फिर भी हर आन मुझे अर्ज़-ए-हुनर में रहना

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