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दिल आईना है मगर इक निगाह करने को - अहमद जावेद कविता - Darsaal

दिल आईना है मगर इक निगाह करने को

दिल आईना है मगर इक निगाह करने को

ये घर बनाया है उस ने तबाह करने को

गुल-ए-विसाल अभी देखा न था कि आ पहुँची

शब-ए-फ़िराक़ भी आँखें सियाह करने को

गलीम ओ तख़्त उतारे हैं ग़ैब से उस ने

मुझे फ़क़ीर तुझे बादशाह करने को

सजे हैं दश्त ओ बयाबाँ अजब क़रीने से

तुझे सवार मुझे गर्द-ए-राह करने को

मिली मुझे तिरी हम-साएगी सो दुनिया में

तमीज़-ए-मर्तबा-ए-कोह-ओ-काह करने को

दमीदा हर शजर-ए-गर्द-बाद नख़्ल-ए-जुनूँ

हमारे चाक-ए-गरेबाँ से राह करने को

दिल-ए-गुदाख़्ता ओ चश्म-ए-तर ही काफ़ी है

फ़ुतूह-ए-ममलिकत-ए-मेहर-ओ-माह करने को

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