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ज़ंजीरों से बँधा हुआ हर एक यहूदी तकता था - अहमद जहाँगीर कविता - Darsaal

ज़ंजीरों से बँधा हुआ हर एक यहूदी तकता था

ज़ंजीरों से बँधा हुआ हर एक यहूदी तकता था

कोसों दूर से बाबुल का रौशन मीनार चमकता था

ग़ार की रंगीं तस्वीरों को और ज़माने देखेंगे

हम ने बस वो नक़्श किया जो उस लम्हे बन सकता था

इक शफ़्फ़ाफ़ दरीचे में कुछ रंग बिरंगे मंज़र थे

गुल-दानों में फूल फ़रोज़ाँ आतिश-दान भड़कता था

मैं जिस मसनद पर था वो तो इक गोशे में रक्खी थी

और दरीचा चुपके से मंज़र की सम्त सरकता था

बारिश छप्पर तेज़ हवाएँ मिस्री जैसे सिंधी गीत

यार सराए के चूल्हे पर मीठा क़हवा पकता था

जंगल गाँव परिंदे इंसाँ क़िस्से में सब लाखों थे

सय्यारे का सूरज लेकिन तन्हाई में यकता था

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