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शीराज़ की मय मर्व के याक़ूत सँभाले - अहमद जहाँगीर कविता - Darsaal

शीराज़ की मय मर्व के याक़ूत सँभाले

शीराज़ की मय मर्व के याक़ूत सँभाले

मैं कोह-ए-दमावंद से आ पहुँचा हिमालय

होवे तो रहे शीशा-ओ-आहन की हुकूमत

काँसी की मिरी तेग़ है मिट्टी के प्याले

हर शख़्स ब-अंदाज़-ए-दिगर वासिल-ए-शक था

उठा मैं तिरी बज़्म से ईक़ान सँभाले

अब इश्क़-ए-नवर्दी ही ठिकाने से लगाए

शो'ला न जलाए मुझे गिर्दाब उछाले

होने की ख़बर भी न तिरा हिज्र-ज़दा दे

भर लेवे कभी आह कभी शम्अ' जला ले

बोसे का तलज़्ज़ज़ु हो कभी तौफ़ की राहत

अरमान मिरा ये दिल-ए-काफ़िर भी निकाले

इबहाम के रेशों से बना बाग़-ए-तख़य्युल

हो जाए कभी चश्म-ए-तहय्युर के हवाले

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