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ज़मज़मा नाला-ए-बुलबुल ठहरे - अहमद हुसैन माइल कविता - Darsaal

ज़मज़मा नाला-ए-बुलबुल ठहरे

ज़मज़मा नाला-ए-बुलबुल ठहरे

मैं जो फ़रियाद करूँ ग़ुल ठहरे

नग़्मा-ए-कुन के करिश्मे देखो

कहीं क़ुम क़ुम कहीं क़ुलक़ुल ठहरे

जाल में कातिब-ए-आमाल फँसें

दोश पर आ के जो काकुल ठहरे

रात दिन रहती है गर्दिश उन को

चाँद सूरज क़दह-ए-मुल ठहरे

मेरा कहना तिरा सुनना मालूम

जुम्बिश-ए-लब ही अगर गुल ठहरे

जान कर भी वो न जानें मुझ को

आरिफ़ाना ही तजाहुल ठहरे

आशिक़ी में ये तनज़्ज़ुल कैसा

आप हम क्यूँ गुल-ओ-बुलबुल ठहरे

तुझ पे खुल जाए जो राज़-ए-हमा-ऊस्त

फ़लसफ़ी दूर ओ तसलसुल ठहरे

आँख से आँख में पैग़ाम आए

गर निगाहों का तवस्सुल ठहरे

खुल गई बे-हमगी बा-हमगी

कुल मैं जब महव हुए कुल ठहरे

दिल से दिल बात करे आँख से आँख

आशिक़ी का जो तवस्सुल ठहरे

क्यूँ न फ़िरदौस में जाए 'माइल'

जब मोहम्मद का तवस्सुल ठहरे

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