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शब-ए-माह में जो पलंग पर मिरे साथ सोए तो क्या हुए - अहमद हुसैन माइल कविता - Darsaal

शब-ए-माह में जो पलंग पर मिरे साथ सोए तो क्या हुए

शब-ए-माह में जो पलंग पर मिरे साथ सोए तो क्या हुए

कभी लिपटे बन के वो चाँदनी कभी चाँद बन के जुदा हुए

हुए वक़्त-ए-आख़िरी मेहरबाँ दम-ए-अव्वलीं जो ख़फ़ा हुए

वो अबद में आ के गले मिले जो अज़ल में हम से जुदा हुए

ये इलाही कैसा ग़ज़ब हुआ वो समाए मुझ में तो क्या हुए

मिरा दिल बने तो तड़प गए मिरा सर बने तो जुदा हुए

चले साथ साथ क़दम क़दम कोई ये न समझा कि हैं बहम

कभी धूप बन के लिपट गए कभी साया बन के जुदा हुए

अभी हैं ज़माने से बे-ख़बर रखा हाथ रक्खे ये लाश पर

उठो बस उठो कहा मान लो मिरी क्या ख़ता जो ख़फ़ा हुए

हैं अजीब मुर्ग़-ए-शिकस्ता-पर न चमन में घर न क़फ़स में घर

जो गिरे तो साया हैं ख़ाक पर जो उठे तो मौज-ए-हवा हुए

वो अरक़ अरक़ हुए जिस घड़ी मुझे उम्र-ए-ख़िज़्र अता हुई

शब-ए-वस्ल क़तरे पसीने के मिरे हक़ में आब-ए-बक़ा हुए

कभी शक्ल-ए-आइना रू-ब-रू कभी तूती और कभी गुफ़्तुगू

कभी शख़्स बन के गले मिले कभी अक्स बन के जुदा हुए

न तजल्लियाँ हैं न गर्मियाँ न शरारतें हैं न फुर्तियाँ

हमा-तन थे दिन को तो शोख़ियाँ हमा-तन वो शब को हया हुए

मिरे नाले हैं कि अज़ल अबद तिरे इश्वे हैं कि लब-ए-मसीह

वहाँ कुन का ग़लग़ला वो बने यहाँ क़ुम की ये जो सदा हुए

गिरे ज़ात में तो है जुमला-ऊस्त उठे जब सिफ़त में हमा-अज़-दस्त

कहा कौन हो तो मिले रहे कहा नाम क्या तो जुदा हुए

किए उस ने बज़्म में शो'बदे मली मेहंदी हाथ पे शम्अ' के

जो पतंगे रात को जल गए वो तमाम मुर्ग़-ए-हिना हुए

मिरे दिल के देखो तो वलवले कि हर एक रंग में जा मिली

जो घटे तो उन का दहन बने जो बढ़े तो अर्ज़-ओ-समा हुए

वही फ़र्श-ओ-अर्श-नशीं रहे हुए नाम अलग जो कहीं रहे

गए दैर में तो सनम बने गए ला-मकाँ तो ख़ुदा हुए

जो तसव्वुर उन का जुदा हुआ दिल बे-ख़बर ने ये दी सदा

अभी हम-बग़ल थे किधर गए अभी गोद में थे वो क्या हुए

कभी सोज़िशें कभी आफ़तें कभी रंजिशें कभी राहतें

मिलीं चार हम को ये नेअ'मतें तिरे इश्क़ में जो फ़ना हुए

हमें शौक़ ये कि हो एक तौर उसे ज़ौक़ ये कि हो शक्ल और

बने आग तो बुझे आब में मिले ख़ाक में तो हवा हुए

गए सर से जबकि वो ता-कमर तो अलिफ़ इधर का हुआ उधर

तिरा जोड़ा खुलते ही बाल सब पस-ए-पुश्त आ के बला हुए

कोई दब गया कोई मर गया कोई पिस गया कोई मिट गया

तिरे इश्वे से जब से फ़लक बने तिरे ग़म्ज़े जब से क़ज़ा हुए

मुझे गुदगुदी से ग़श आ गया तो हिला के शाना यही कहा

अभी हँसते थे अभी मर गए अभी क्या थे तुम अभी क्या हुए

कहो काफ़िरों से करें ख़ुशी कि ये मसअला है तनासुख़ी

मिरे नाले ख़ाक में जब मिले तो सुबू के दस्त-ए-दुआ हुए

पस-ए-वस्ल हम जो सरक गए तो वो खिलखिला के फड़क गए

कहा शोख़ियों ने चलो हटो कि हुज़ूर तुम से ख़फ़ा हुए

तुम्हें लोग कहते हैं नौजवाँ कि हो बीस तीस के दरमियाँ

कहो मुझ से 'माइल'-ए-ख़ुश-बयाँ वो तुम्हारे वलवले क्या हुए

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