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खड़े हैं मूसा उठाओ पर्दा दिखाओ तुम आब-ओ-ताब-ए-आरिज़ - अहमद हुसैन माइल कविता - Darsaal

खड़े हैं मूसा उठाओ पर्दा दिखाओ तुम आब-ओ-ताब-ए-आरिज़

खड़े हैं मूसा उठाओ पर्दा दिखाओ तुम आब-ओ-ताब-ए-आरिज़

हिजाब क्यूँ है कि ख़ुद तजल्ली बनी हुई है हिजाब-ए-आरिज़

न रुक सकेगी ज़िया-ए-आरिज़ जो सद्द-ए-रह हो नक़ाब-ए-आरिज़

वो होगी बे-पर्दा रख के पर्दा ग़ज़ब की चंचल है ताब-ए-आरिज़

छुपा न मुँह दोनों हाथ से यूँ तड़पती है बर्क़-ए-ताब-ए-आरिज़

लगा न दे आग उँगलियों में ये गर्मी-ए-इज़्तिराब-ए-आरिज़

जो उन को लिपटा के गाल चूमा हया से आने लगा पसीना

हुई है बोसों की गर्म भट्टी खिंचे न क्यूँ कर शराब-ए-आरिज़

परी जो देखे कहे तड़प कर जो हूर देखे कहे फड़क कर

तुम्हारा गेसू जवाब-ए-गेसू तुम्हारा आरिज़ जवाब-ए-आरिज़

हुज़ूर घुँघट उठा के आएँ बड़ी चमक किस में है दिखाएँ

इधर रहे आफ़्ताब-ए-महशर उधर रहे आफ़्ताब-ए-आरिज़

छुपाना क्या एक का था मंज़ूर आज तक हैं जो चार मशहूर

ज़बूर तौरेत मुसहफ़ इंजील पाँचवीं है किताब-ए-आरिज़

न क्यूँ हो दा'वा बराबरी का वहाँ मिला तिल यहाँ सुवैदा

ये नुक़्ता-ए-इंतिख़ाब-ए-दिल है वो नुक़्ता-ए-इंतिख़ाब-ए-आरिज़

पड़ा हूँ ग़श में मुझे सुँघा दो पसीना चेहरे का ज़ुल्फ़ की बू

नहीं है कम लख़लख़े से मुझ को ये मुश्क-ए-गेसू गुलाब-ए-आरिज़

जो शो'ला-रू मुँह छुपा के निकला धुआँ सर-ए-राह कुछ कुछ उट्ठा

लगी वो आतिश बने है जल कर नक़ाब-ए-आरिज़ कबाब-ए-आरिज़

न झेपो सुब्ह-ए-विसाल देखो तुम आँख से आँख तो मिलाओ

लिए हैं गिन गिन के मैं ने बोसे ज़बान पर है हिसाब-ए-आरिज़

करो न ग़ुस्से से लाल चेहरा भवों में डालो न बल ख़ुदारा

नहीं मजाल-ए-जलाल-ए-अबरू नहीं है ताब-ए-इताब-ए-आरिज़

जो गाल पर गाल हम रखेंगे शब-ए-विसाल उन के हाथ उठेंगे

तमांचे मारेंगे प्यार से वो बजेंगे चंग-ओ-रुबाब-ए-आरिज़

कमर को गर्दन को दस्त-ओ-लब को विसाल में लुत्फ़ दे रहा है

शबाब-ए-ज़ानू शबाब-ए-बाज़ू शबाब-ए-सीना शबाब-ए-आरिज़

जनाब-ए-'माइल' ये कूदक-ए-दिल बुतों की उल्फ़त में होगा कामिल

पढ़ाओ क़ुरआँ के बदले इस को बयाज़-ए-गर्दन किताब-ए-आरिज़

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