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चोरी से दो घड़ी जो नज़ारे हुए तो क्या - अहमद हुसैन माइल कविता - Darsaal

चोरी से दो घड़ी जो नज़ारे हुए तो क्या

चोरी से दो घड़ी जो नज़ारे हुए तो क्या

चिलमन तो बीच में है इशारे हुए तो क्या

बोसा-दही का लुत्फ़ मिला हुस्न बढ़ गया

रुख़्सार लाल लाल तुम्हारे हुए तो क्या

बे-पर्दा मुँह दिखा के मिरे होश उड़ाओ तुम

पर्दे की आड़ से जो नज़ारे हुए तो क्या

मुझ को कुढ़ा कुढ़ा के वो मारेंगे जान से

दिलबर हुए तो क्या मिरे प्यारे हुए तो क्या

ऐ जाँ मुक़ाबला मिरे हाथों से कब हुआ

जौबन तिरे उभर के करारे हुए तो क्या

उल्फ़त का लुत्फ़ क्या जो बग़ल ही न गर्म हो

वो दिल में रहने वाले हमारे हुए तो क्या

तासीर दे दुआ में ख़ुदा है यही दुआ

ऊँचे जो दोनों हाथ हमारे हुए तो क्या

बोसा न दे वो मुझ को तो मैं इस को दिल न दूँ

इस गोरे हाथ से जो इशारे हुए तो क्या

तुम सोओ फैल के फूलों की सेज पर

फ़ुर्क़त में हम जो गोर किनारे हुए तो क्या

सीना मिला के सीना से दिल में जगह करो

फिरते हो जौबनों को उभारे हुए तो क्या

कब खेलने पकड़ के हवा में से लाए वो

जुगनू जो आह दल के शरारे हुए तो क्या

ऐ जाँ है तेरी ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ का हुस्न और

हूरों के बाल हैं जो सँवारे हुए तो क्या

आँखें खुली भी हूँ तो वही सामने रहे

आँखों को बंद कर के नज़ारे हुए तो क्या

लाखों मज़े मिलें मिरे लब से अगर मिलें

वो गोरे गाल आँख के तारे हुए तो क्या

यक बोसा और लूंगा अरक़ मुँह से पूछ कर

वो आब आब शर्म के मारे हुए तो क्या

'माइल' न हो विसाल तो क्या इश्क़ का मज़ा

माशूक़ दूर से वो हमारे हुए तो क्या

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