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तज्दीद-3 - अहमद हमेश कविता - Darsaal

तज्दीद-3

तुम एक ही लिबास नहीं पहन सकते

और वो है सफ़र

27-साल से इस अर्सा-ए-बे-ज़मीनी पर

मैं सफ़र ही तो पहनता आया हूँ

एक बार एक क़स्बे में

एक नन्ही सी बच्ची ने मुझ से

मेरी उदासी पूछी थी

मेरी उदासी मेरे अंदर थी

और बच्ची का मतलब बाहर था

बाहर की क़ुव्वत ने मेरी छिपी हुई रोटियाँ छीन लीं

तुम ने कहीं से सुन लिया

कि जो मिट्टी गोश्त से चिपक जाती है

उस से एक अटल मकान बनता है

सो तुम अटल मकान में अटल बन गए

तुम ने मुझ से मेरी शहरियत छीन ली

क्यूँकि

मैं उन लोगों में से नहीं था

जिन्हों ने महज़ औरतों के नाम

सूँघने में कई बरस गुज़ार दिए

फिर शायद उन्हें कोई चोर-दरवाज़ा मिल गया

कुछ लोग जो जेल से छूट के आए थे

उन्हों ने अपने घरों की सलाख़ों को

नीले रंग से रंग दिया

क्यूँकि नीले रंग की नींद

आराम और वहम के दरमियान

शायद एक टाँक होती है

मैं ने कभी टॉनिक नहीं पिया

मेरे पास तो कुछ जम्अ' हुई रोटियाँ थीं

उन्हीं में कहीं खाने बैठा था

कि शहरों के चौराहों की सम्त

जाती हुई धूप बहुत तेज़ होगी

एक मुल्क का धुआँ

दूसरे मुल्क की फ़स्लों में सरायत कर गया

तुम नहीं जानते कि ये सब कुछ क्यूँ हुआ

तुम अपने मकान में अटल रहे

मैं आगे चल दिया

मुझे चोर-दरवाज़ा नहीं मिला

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