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सफ़र ऐसा है कहाँ का - अहमद हमेश कविता - Darsaal

सफ़र ऐसा है कहाँ का

जिस जहान में मेरी आवाज़ ने मुझे छोड़ा था

वो अब मेरी समाअ'त से परे है

मुझे कुछ सुनाई नहीं देता

मुश्किल ये है कि आदमी बहुत कुछ सुन सकता न देख सकता है

फिर भी शायद कुछ ऐसा होता है कि

किसी भी मरने वाले आदमी की

आँखों की कगार पर जब उस की

जान ठहर जाती है

तू उस के नाम का परिंदा

उसे अचानक उड़ा ले जाता है

ये मौत होती है

सिवाए इस के कि मरने वाला उसे देख नहीं सकता

मुझे याद नहीं

कि मैं ने किस से मोहब्बत की

और किस से नफ़रत की

सिवाए इस के कि मैं ने वो सारे गुनाह किए

जो मुझे इस लिए याद हैं

कि एक उम्र तक उन्हें

मुझ में रचाया बसाया और खिलाया पिलाया गया

मुझे याद है

कि मैं ने कोई ऐसी ग़िज़ा नहीं खाई

जो मेरी रूह में उतर जाती

मुझे याद है

कि मैं ने कोई ऐसा लिबास नहीं पहना

जो मेरे बातिन में उतर जाता

मैं ज़िंदगी भर भूका रहा

और नंगा रहा

यहाँ तक कि मेरे पास

राह-ए-हक़ में कुछ देने के लिए भी नहीं

न कोई नेकी न कोई बुराई

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