मेहवर
हमारी आँखों में जलने वाले नुक़ूश बाक़ी हैं
कान मौसम की गर्म आहट से चौंक उठते हैं
भीगी मिट्टी का लम्स फ़न को निखार देता है
नर्सरी के पुराने गमलों में परवरिश के तमाम आदाब
ख़ूब सजते हैं
हवा अभी तक हमारे पेड़ों की सर्द शाख़ों में सरसराती है
होंट हिलते हैं
और गाएक हमारे विज्दान की शत और अथाह लहरों में बह निकलता है
हमारी मासूम आत्माओं की जोत धरती पे जागती है
हमारी मेहवर पे घूमती है
क्या हुआ जो हमारी दुनिया में दिन की नफ़रत
या शब का धोका भी हादिसा है हमारे अल्फ़ाज़ का
न कोई तारीख़ साअ'तों की
न कोई विर्सा न कोई तहज़ीब
सब ग़लत है
मुफ़ाहमत के तमाम बंधन बिखर चुके हैं
हमारी आँखें ही देखती हैं
और कोई आवाज़ हमारी तारीख़ की हिकायत से मावरा है
दिमाग़ पत्थर उगा रहे हैं
(838) Peoples Rate This