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सुब्ह-ए-फ़िराक़ अल-अमाँ वस्ल की शाम अल-अमाँ - अहमद हमेश कविता - Darsaal

सुब्ह-ए-फ़िराक़ अल-अमाँ वस्ल की शाम अल-अमाँ

सुब्ह-ए-फ़िराक़ अल-अमाँ वस्ल की शाम अल-अमाँ

अजीब है बिसात-ए-इश्क़ अजब निज़ाम अल-अमाँ

थे कभी जो सुर्ख़-रू वो तो हम नहीं रहे

तुम तो हो चुनीं-चुनाँ तुम्हारा नाम अल-अमाँ

गुज़र गई ये ज़िंदगी क़दम क़दम घसीट के

मौत भी आ रही है क्या गाम-ब-गाम अल-अमाँ

फिर रहा था जा-ब-जा फ़क़ीर रिज़्क़ के लिए

आख़िर उसे ग़िज़ा मिली वो भी हराम अल-अमाँ

सारी तलाश है अबस सारी तलब है राएगाँ

कार-ए-फ़ुज़ूल इश्क़ में सब कुछ तमाम अल-अमाँ

हर्फ़-ए-कलाम से परे हर्फ-ए-सुकूत का जहाँ

कोई नहीं पहुँच सका नक़्श-ए-दवाम अल-अमाँ

खुलता नहीं 'हमेश' पर उक़्दा-ए-फ़रेब क्यूँ

किस ने बिछाए हैं यहाँ दाना-ओ-दाम अल-अमाँ

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