जब से मैं ख़ुद को खो रहा हूँ
जब से मैं ख़ुद को खो रहा हूँ
करवट बदल के सो रहा हूँ
ये जागना और सोना क्या है
आँखों में जहाँ समो रहा हूँ
दुनिया से उलझ के सर पर शायद
अपनी ही बला को ढो रहा हूँ
ये लाग और लगाव क्या है
अपना वजूद ही डुबो रहा हूँ
अब तक जो ज़िंदगी है गुज़री
काँटे नफ़स में बो रहा हूँ
है कुछ तो अपनी पर्दा-दारी
न जागता हूँ न सो रहा हूँ
इतना है खोट मेरे मन में
पानी में दूध बिलो रहा हूँ
ऐ दिल-फ़िगार बे-सबात हस्ती
तेरी ही जान को रो रहा हूँ
जितनी है दूर मौत मुझ से
इतना ही क़रीब हो रहा हूँ
शीराज़ा यूँ बिखर रहा है
ख़ुद में तबाह हो रहा हूँ
किस रास्ते पर जा रही है दुनिया
ये देख के ही तो रो रहा हूँ
जाने 'हमेश' ख़ुद को कब से
बे-वज्ह लहू में डुबो रहा हूँ
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