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जब से मैं ख़ुद को खो रहा हूँ - अहमद हमेश कविता - Darsaal

जब से मैं ख़ुद को खो रहा हूँ

जब से मैं ख़ुद को खो रहा हूँ

करवट बदल के सो रहा हूँ

ये जागना और सोना क्या है

आँखों में जहाँ समो रहा हूँ

दुनिया से उलझ के सर पर शायद

अपनी ही बला को ढो रहा हूँ

ये लाग और लगाव क्या है

अपना वजूद ही डुबो रहा हूँ

अब तक जो ज़िंदगी है गुज़री

काँटे नफ़स में बो रहा हूँ

है कुछ तो अपनी पर्दा-दारी

न जागता हूँ न सो रहा हूँ

इतना है खोट मेरे मन में

पानी में दूध बिलो रहा हूँ

ऐ दिल-फ़िगार बे-सबात हस्ती

तेरी ही जान को रो रहा हूँ

जितनी है दूर मौत मुझ से

इतना ही क़रीब हो रहा हूँ

शीराज़ा यूँ बिखर रहा है

ख़ुद में तबाह हो रहा हूँ

किस रास्ते पर जा रही है दुनिया

ये देख के ही तो रो रहा हूँ

जाने 'हमेश' ख़ुद को कब से

बे-वज्ह लहू में डुबो रहा हूँ

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