क्यूँ हमारे साँस भी होते हैं लोगों पर गिराँ
हम भी तो इक उम्र ले कर इस जहाँ में आए थे
Habib Jalib
Allama Iqbal
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Ahmad Faraz
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Gulzar
Rahat Indori
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गर्द कैसी है ये धुआँ सा क्या
दिलों को रंज ये कैसा है ये ख़ुशी क्या है
वो मेरी राह में काँटे बिछाए मैं लेकिन
नहीं मिलते वो अब तो क्या बात है
ये वफ़ाएँ सारी धोके फिर ये धोके भी कहाँ
मुँह अँधेरे घर से निकले फिर थे हंगामे बहुत
तू मयस्सर था तो दिल में थे हज़ारों अरमाँ
अजीब वहशतें हिस्से में अपने आई हैं
दिल तुझे पा के भी तन्हा होता
मुज़्तरिब हैं वक़्त के ज़र्रात सूरज से कहो
याद क्या क्या लोग दश्त-ए-बे-कराँ में आए थे